Welcome to Pariyavaran Sanrakshan Gatividhi – Punjab
Harit - The Way of Life Holistic Action for Revival of Indigenous Traditions पर्यावरण संरक्षण प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक कर्त्तव्य

*पर्यावरण की भारतीय वैज्ञानिक अवधारणा एकमात्र समाधान*

सन् 1901 में लंदन में रायल सोसायटी में एक सार्वजनिक प्रदर्शन में भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु जी ने अपने नए क्रेस्कोग्राफ का उपयोग करके दिखाया और सिद्ध Zकिया कि पौधे का कोई हिस्सा जहर के घोल के सम्पर्क में आता है तो वह उससे दूर जाने के लिए हिलता है। पौधों में भी जानवरों और मनुष्यों की तरह जीवन होता है। पौधों में भी भावनायें, उत्तेजनायें होती हैं।

जापानी वैज्ञानिक डॉ. मासारू इमोटो ने अपने शोध के माध्यम से पाया कि पानी के अणु हमारे विचारों, शब्दों और भावनाओं से प्रभावित होते हैं । यदि हम पानी की तरफ प्यार से देखते हैं तो उसमें सकारात्मक परिवर्तन आते हैं और यदि घूरकर तो नकारात्मक । पानी भी बुद्धिमान है, उसमें भी स्मृति है। संपूर्ण सृष्टि जिस चेतना से अनुप्राणित है पानी भी उसी चेतना से अनुप्राणित है।

भक्त नामदेव रोटी खा रहे थे। एक कुत्ता आया और उनकी थाली में से एक रोटी उठाकर भाग गया । लोगों ने देखा कि भक्त जी, घी का कटोरा लेकर कुत्ते के पीछे भाग रहे हैं और कह रहे हैं कि प्रभु! रोटी सूखी मत खाना, थोड़ा घी भी लगाते जाना। भक्त जी ने 72बार भगवान के दर्शन किये । उनकी दृष्टि थी कण कण में भगवान है ।

जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि। पर्यावरण के प्रति नजरिया बदलेगा तो नज़ारे भी बदल जाएंगे।

पर्यावरण को लेकर विश्व की सभी चिंताओं का समाधान भारतीय विचार में है। आवश्यकता है कि भारतीय विचार के वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रचार प्रसार किया जाये। पर्यावरण के सभी घटकों के प्रति कृतज्ञता (thankfulness) का भाव विकसित हो जाने से आचरण भी पर्यावरण अनुकूल हो जायेगा । पर्यावरण अनुकूल आदतें अर्थात् पर्यावरण पोषक जीवनशैली ही एकमात्र समाधान है।

सामाजिक चेतना के बिना किसी भी तरह का परिवर्तन असंभव है। जनक्रांति के लिए सामाजिक चेतना का जागृत होना आवश्यक है और यह तभी संभव हो सकता है जब समाज के प्रत्येक व्यक्ति को उसके उत्तरदायित्व का ज्ञान हो। सामाजिक चेतना किसी भी आंदोलन का आधार है। पर्यावरण संरक्षण को एक सामाजिक आंदोलन का रूप देने के लिए प्रत्येक व्यक्ति में चेतना का संचार करना पड़ेगा, ताकि वह प्रकृति तथा स्वयं को एक समान जाने। प्रकृति के जितने भी घटक हैं, जितने भी रूप है उन सबको अपने समान समझे। जो समाज समय के अनुरूप स्वयं को परिवर्तित नहीं करता, वर्तमान की आवश्यकताओं के प्रति सचेत नहीं रहता वह समाप्त हो जाता है। समाज को यह सोचना ही होगा कि जीवित रहने के लिए, श्वास लेने के लिए और अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए हमें सर्वप्रथम पर्यावरण की रक्षा करनी होगी अन्यथा किसी भी प्रकार के विनाश के लिए तैयार रहना होगा।

प्रवीण कुमार (प्रांत संयोजक)

पर्यावरण संरक्षण गतिविधि

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